आज़ाद भगत सिंह

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आज़ाद भगत सिंह
28 सितंबर 1907- 23 मार्च 1931 

आज़ाद कहो या अमर, बात एक ही है। उनके जीवन के जो साल दिखते हैं, वह 23 हैं पर उनके विचारों की उम्र अमर है।

विचार परिदृष्टि

सोचते हैं आज जिस आज़ादी की खुशी हम इतनी धूम से मनाते हैं, उस आज़ादी से जुड़े विचारों पर भी अमल करते हैं कि नहीं।

जिस आज़ाद भारत का सपना भगत सिंह ने देखा था, क्या सच में उनके बलिदान की क़द्र करते हुए हम वैसी ही आज़ादी जीते हैं?

क्या उनका मक़सद सिर्फ़ देश को ‘पूर्ण स्वराज’ की आज़ादी देना था या वह उससे भी परे विचारों की आज़ादी की बातें करते थे? 

15 अगस्त 1947 -डॉमिनियन स्टेटस 
26 जनवरी 1950 – पूर्ण स्वराज

15 अगस्त 1947 को भारत को डॉमिनियन स्टेटस मिला, जिसका अर्थ था कि यह एक स्वतंत्र राष्ट्र बना, जिसमें भारत का हेड ऑफ़ स्टेट ब्रिटिश मॉनार्क के रूप में रहता था।

26 जनवरी 1950 को, भारत ने एक गणराज्य संविधान को अपनाया और डॉमिनियन स्टेटस को पूरी तरह से समाप्त किया। यह वह दिन है जब सेवाधानिक रूप से भारत के सिर पर कोई ब्रिटिश हेड नहीं था और इसलिए यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि यही वह दिन है जब हम यह कह सके कि देश को पूर्ण स्वराज मिला। और इसलिए स्वतंत्रता दिवस भी इसी दिन कहलाना चाहिए।

आप इस टॉपिक से जुड़ी और जानकारी ‘गणराज्य होने का अर्थ’ वीडियो द्वारा देख सकते हैं, जो कि धृष्टि इंस्टीट्यूट के सीईओ डॉ. विकास दिव्यकीर्ति सर द्वारा विस्तार में दी गई है।

भगत सिंह के जज्बे की सराहना करते हुए और उनके डोमिनियन स्टेटस के खिलाफ खड़े रहने के विचारों को ध्यान में रखते हुए, पूर्ण रूप से आज़ादी की खुशी 15 अगस्त को नहीं, परंतु 26 जनवरी को मनानी चाहिए। (भगत सिंह के विचारों, बलिदान, और देशभक्ति के सम्मान में, हमें 26 जनवरी 1950 से भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र कहना चाहिए।)

आज़ाद भगत सिंह और उनके आज़ाद विचार

अगर आप उनकी जीवनशैली पढ़ें, या उनसे जुड़ी कोई भी मूवी देखें जैसे ‘द लेजेंड ऑफ भगत सिंह’, जिसमें उन्होंने साफ साफ कहा सिर्फ़ आज़ादी उनका मक़सद नहीं था। उनका मक़सद था आज़ादी के बाद लोगों को विभाजित करने वाली सोच से आज़ाद करना।

इंक़िलाब (एकग्रता)

जिस तरह लोगों को धर्म के नाम पर लड़ाकर अंग्रेज़ी हुकूमत टिके रहना चाहती थी, वह साफ़ साफ़ देख पा रहे थे कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो कल देश आज़ाद होकर भी धर्मों के हिस्सों में बट जाएगा, और फिर वह आज़ाद होकर भी नहीं होगा। और ऐसा ही हुआ। 1947 में डॉमिनियन स्टेटस दिया गया और भारत दो हिस्सों में विभाजित होता दिखा, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान। ये विभाजन इस क़दर हुआ कि आज भी चाहे इंडिया-पाकिस्तान क्रिकेट मैच हो या कोई राजनीतिक मुद्दा, दोनों देश अब भी ब्रिटिश हुकूमत की लगाई हुई आग में जलते हैं। इसमें जनता या आवाम का दोष नहीं। बल्कि दोष है हमारा गहराई से नहीं सोच पाने का। उस तर्क को नहीं समझ पाना जिस तर्क के साथ आजाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु हँसते हँसते फाँसी पे चढ़ गए थे। 

अगर हम समझ पाते उनके बलिदान को, तो समझ पाते कि जिस आज़ादी का जश्न हम मनाते हैं, वह आज़ादी का नहीं बल्कि अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा दी गई डॉमिनियन स्टेटस का मनाते हैं। अगर सही में समझते भगत सिंह के विचारों को तो यूं 1947 के विभाजन को आज़ादी का नाम नहीं देते। अगर सही में आज़ाद भगत सिंह की देशभक्ति को नमन करते तो आज यूं दो देशों के नाम पे लड़ते नहीं, धर्म के नाम पे लड़ते नहीं। उससे भी ऊपर, एक देश में रह कर विभिन्न वर्गों में नहीं बटते।

आज अगर देखा जाए तो पूरा विश्व एक है। सभी को कहीं भी रहने की आज़ादी है, भाईचारा है।फिर भी कहीं न कहीं कुछ दिलों में कड़वाहट देखने को मिल जाती है। आज जहाँ विश्व पूर्ण रूप से भौतिक आज़ादी जीता दिखता है, वही मानसिक रूप से कैद भी लगता है। 

आज, आज़ादी की मांग विचारों को लेकर है। क्या हम नहीं देख पा रहे कि एक इंसान दूसरे इंसान से बिलकुल भी अलग नहीं है।

आज सोशल स्टेटस की आड़ में कहीं हम अपनी आज़ादी का गलत उपयोग तो नहीं कर रहे? क्या आज हम भावुक होकर एक दूसरे की तकलीफ़ समझ पा रहे हैं या अपने ही घरों के कामों में सिमित हो गए हैं?

आधिकारिक मांग

इंडिया’ नाम ब्रिटिश द्वारा दिया गया था। उस मामले में, जब ‘इंडिया’ को ‘भारत’ आधिकारिक रूप से कहा जाएगा, तो उस दिन भारत की स्वतंत्रता में और भी चाँद तारे लग जाएंगे।

प्रेम सर्वगुण सम्पन्न 

स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘अगर तुम्हें भगवान को खोजना है, तो मनुष्य की सेवा करो। भगवान कभी नहीं कहते कि मैं तुम्हारी मदद तबही करूँगा जब तुम मेरी प्रार्थना करोगे। बल्कि, सच्ची प्रार्थना उस व्यक्ति के कर्मों में छिपी होती है, जो देशवासियों की सेवा करता है।

प्रार्थना के पहलु

  • जब कोई अनुकूल प्रस्थितियों से गुजरे और अपने को उठाने के लिए प्रार्थना करे, प्रार्थना तब भी काम करती है, पर उस प्रार्थना का महत्व सीमित होता है, कुछ समय के लिए होता है। हालांकि सुख में भूलकर, सिर्फ दुःख में की गई प्रार्थना अर्थहीन ही होती है।
  • उन्ही अनुकूल प्रस्थितियों के रहते जब कोई प्रार्थना नहीं भी करे फिर भी ध्यान सिर्फ सही कर्मों पर रखे, वह भी प्रार्थना है।
  • लोगों की भलायी में खुद का जीवन दे देना, कभी अनुकूल परिस्थितियों के रहते जब होसलों पर आंच आने लगे, फिर भी कमजोर नहीं पड़ना, किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं करना, सिर्फ़ खुद पे विश्वास रखना, एक आजीवन चलने वाली प्रार्थना है जिसे लोग नास्तिक कहते हैं।

बदलते बदलते
सब बदल रहा है
ऐसा सबका ख्याल

एक ही सूरज
एक ही धरती
जब एक ही है आकाश
फिर कैसे अलग हुई सबकी पहचान


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